Wednesday, January 27, 2010

Vande Ishwaram (Jan 2010) वन्‍दे ईश्‍वरम - मासिक -पत्रिका

भारत को विश्‍व गुरू बनाने के लिये आरम्‍भ की गयी पत्रीका में इस बार विशेष लेख पवित्र कुरआन में गणीतीय, चमत्‍कार प़ष्‍ठ 5 से 9
vande ishwaram Dec- january 2010

Friday, November 6, 2009

‘वन्दे मातरम्’ का पाठ+अनुवाद, हकीक़त, & लेखः नफ़रत की आग बुझाइएः डा. अनवर जमाल

वन्दे मातरम् एक ऐसा इश्यू है जो सोचे समझे तरीके़ से रह रह कर उठाया जाता है। कान्ति मासिक जुलाई 1999 में प्रकाशित लेख आज भी प्रासंगिक है।
======
वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्!
शुभ-ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-द्रमुदल शोभिनीम्
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्!
सन्तकोटिकंठ-कलकल-निनादकराले
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृतखरकरबाले
अबला केनो माँ एतो बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदल वारिणीं मातरम्!
तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि हरि तुमि कर्म
त्वम् हि प्राणाः शरीरे।
बाहुते तुमि मा शक्ति
हृदये तुमि मा भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गड़ि मंदिरें-मंदिरे।
त्वं हि दूर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमल-दल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी नवामि त्वां
नवामि कमलाम् अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्!
वन्दे मातरम्!
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीम् मातरम्।
(साभारः आनन्द मठ् पृ0 60, राजकमल प्रकाशन,संस्करण तृतीय, 1997)
अनुवाद
1.
हे माँ मैं तेरी वन्दना करता हूँ
तेरे अच्छे पानी, अच्छे फलों,
सुगन्धित, शुष्क, उत्तरी समीर (हवा)
हरे-भरे खेतों वाली मेरी माँ।
2.
सुन्दर चाँदनी से प्रकाशित रात वाली,
खिले हुए फूलों और घने वृ़क्षों वाली,
सुमधुर भाषा वाली,
सुख देने वाली वरदायिनी मेरी माँ।
3.
तीस करोड़ कण्ठों की जोशीली आवाज़ें,
साठ करोड़ भुजाओं में तलवारों को
धारण किये हुए
क्या इतनी शक्ति के बाद भी,
हे माँ तू निर्बल है,
तू ही हमारी भुजाओं की शक्ति है,
मैं तेरी पद-वन्दना करता हूँ मेरी माँ।
4.
तू ही मेरा ज्ञान, तू ही मेरा धर्म है,
तू ही मेरा अन्तर्मन, तू ही मेरा लक्ष्य,
तू ही मेरे शरीर का प्राण,
तू ही भुजाओं की शक्ति है,
मन के भीतर तेरा ही सत्य है,
तेरी ही मन मोहिनी मूर्ति
एक-एक मन्दिर में,
5.
तू ही दुर्गा दश सशस्त्र भुजाओं वाली,
तू ही कमला है, कमल के फूलों की बहार,
तू ही ज्ञान गंगा है, परिपूर्ण करने वाली,
मैं तेरा दास हूँ, दासों का भी दास,
दासों के दास का भी दास,
अच्छे पानी अच्छे फलों वाली मेरी माँ,
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
6.
लहलहाते खेतों वाली, पवित्र, मोहिनी,
सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
..............................................................................

‘वन्दे मातरम्’ की हकीक़त ‘आनन्दमठ ’ में मुस्लिम समुदाय का चित्रण


‘आनन्दमठ’ बंकिमचन्द्र चट्टोपध्याय का सर्वाधिक आलोचित विवादस्पद उपन्यास है। यह उपन्यास सन् 1882 ई0 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ था। इससे पहले ‘बंगदर्शन’ नामक पत्रिका में यह धारावाहिक रूप में प्रकाशित होता रहा था। ‘वन्देमातरम् गीत इसी के अन्तर्गत है। इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में आनन्दमठ की रचना के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए रमेशचन्द्र ने लिखा है
&ß The General Moral of the ' Ananda Math' then, is that British Rule and British Education are to be accepted as the only alternative to Mussalman oppression.ß
अर्थात् अंग्रेजी शासन और शिक्षा को स्वीकार करना ही मुस्लिम शोषण तथा दमन से बचने का एकमात्र विकल्प है।
यहां, यह बात उल्लेखनीय है कि बंकिमचन्द्र के जीवनकाल में ही ‘आनन्दमठ’ के पांच संस्करण छप गए थे और उपन्यासकार ने इसके प्रत्येक संस्करण में अनेकानेक संशोधन किए थे। इसी आधार पर नामवर सिंह जैसे अनेक विद्वान कहते हैं कि आनन्दमठ की रचना पहले अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध की गयी थी, परन्तु सरकारी नौकर होने के कारण अंग्रेज ‘आक़ाओं’ के दबाव तथा प्रलोभन के कारण इसे संशोधित करके मुस्लिम-विरोधी बना दिया गया।
अंग्रेजों ने भारत पर राज करने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई थी। परन्तु ‘वन्देमातरम्’ और ‘सरस्वती वन्दना’ को स्कूलों आदि में अनिवार्य घोषित करने की मांग करनेवालों ने ‘डराओ और राज करो की नीति अपना ली है। ‘वन्देमातरम् के समर्थक कहते है’-
हिन्दुस्तान में रहना होगा तो वन्देमातरम् कहना है कि वन्देमातम् का विरोध करना भारत का विरोध करना है और भारत का विरोध राष्ट्रद्रोह है। राष्ट्रद्रोह की इजाज़त किसी को भी नहीं दी जा सकती चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान।
इसके विपरीत इसके विरोधियों का कहना है कि वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना कहना गाना और इन्हें अनिवार्य घोषित के करना मुसलमानों के विश्वास के खि़लाफ़ है। मुसलमान कहता है-
‘मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई इलाह (पूज्य प्रभु) नहीं। मैं गवाही देता हूं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) अल्लाह के रसूल (ईशदूत) हैं। ‘अल-हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन’ यानी सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का, समस्त जड़- चेतन पदार्थो का पालनकर्ता है। इसलिए मुसलमान अल्लाह के अतिरिक्त किसी की भी पूजा-अर्चना नहीं कर सकता, चाहे वह स्वयं ईशदूत ही क्यों न हों। हां, वह प्रत्येक सगे-संबंधी या किसी को भी उसका उचित मान-सम्मान अवश्य देता है।
ईसाई या उन संगठनों के माननेवाले भी वन्देमातरम् और सरस्वती वन्दना को अनिवार्य किए जाने के सख्त ख़िलाफ़ है, जो एक ईश्वर को मानते हैं और उसके सिवा किसी को पूजनीय नहीं समझते।
इस प्रकार वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना को लेकर लोग प्रायः दो धड़ों में बंटे हुए है। एक धड़ा इसका समर्थन करता है, तो दूसरा विरोध। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। परन्तु दोनों में से किसी भी धड़े ने ‘आनन्दमठ’ की कथावस्तु को मूल रूप में जनता के समक्ष रखने का कष्ट नहीं किया है ताकि जनता सच्चाई से अवगत हो जाए। इसकी व्याख्या प्रायः संदर्भ से हटकर की जाती रही है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। आनन्दमठ की रचना अंग्रेजों के शासनकाल में हुई परन्तु इसकी कथावस्तु मुस्लिम शासनकाल की है। सन् 1175 बंगाल में बहुत भंयकर अकाल पड़ा था। उसी अकाल की पृष्ठभूमि में बंगाल की सन्यासी-विद्रोह की घटना को लेकर इस उपन्यास की रचना की गई। उपन्यास में हैं-
1174 में फ़सल अच्छी नहीं हुई। अतः 1175 में अकाल आ पड़ा- भारतवासियों पर संकट आया.... पहले एक संध्या का उपवास हुआ, फिर एक समय भी आधा पेट भोजन न मिलने लगा। इसके बाद दो-दो संध्या उपवास होने लगा। चैत में जो कुछ फसल हुई, वह किसी के एक ग्रास भर को भी न हुई। लेकिन मालगुज़ारी के अफ़सर मुहम्मद रज़ा खंा ने मन में सोचा कि यही समय है, मेरे तपने का। एकदम उसने दस प्रतिशत मालगुज़ारी बढ़ा दी। बंगाल में घर-घर कोहराम मच गया। (बंकिम समग्र, सम्पादक निहालचन्द्र शर्मा, पृ0 735, तृतीय संस्करण 1989, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी)
आनन्दमठ एक अत्यन्त सघन तथा भयंकर वन में बहुत विस्तृत भूमि पर ठोस पत्थरों से निर्मित एक बहुत बड़ा मठ है। यह पहले बौद्ध विहार था, परन्तु इस पर अब हिन्दू साधु-संन्यासी, जिन्हें उपन्यास में संतान कहा गया है, का क़ब्ज़ा हो गया है। उपन्यास में संतान ऐसे साधु- संन्यासियों को कहा गया है, जिन्होने इस संकल्प के साथ अपना घरबार त्यागा है कि जब तक भारतभूमि को मुस्लिम-शासन से मुक्त नहीं करवाएंगे, चैन से नहीं बैठेंगे और न ही घर-गृहस्थी बसाएंगे। संतान वैष्णव हैं और हिंसा का समर्थन करते हैं।
महेन्द्र ने विस्मय से पूछा-तुम लोग कौन हो?
भवानन्द ने उत्तर दिया-हम लोग संतान हैं।
महेन्द्र-संतान क्या है? किसकी संतान हैं?
भवानन्द-माता की संतान!
महेन्द्र-ठीक! तो क्या संतान लोग चोरी-डकैती करके मां की पूजा करते हैं। यह कैसी मातृभक्ति? (पृ0 745-46)
संतान दो तरह के हैं- दीक्षित और अदीक्षित। जो अदीक्षित हैं, वे या तो संसारी हैं अथवा भिखारी। वे लोग केवल युद्ध के समय आकर उपस्थित हो जाते हैं, लूट का हिस्सा या पुरस्कार पाकर चले जाते हैं। जो दीक्षित हैं, सर्वस्वत्यागी हैं। यही लोग सम्प्रदाय के कत्र्ता हैं। (पृ0771)
बंगला सन् 1173 में बंगाल प्रदेश अंग्रेजों के शासनाधीन नहीं हुआ था। अंग्रेज़ उस समय बंगाल के दीवान ही थे। वे खज़ाने का रूपया वसूलते थे, लेकिन तब बंगालियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर लिया न था। उस समय लगान की वसूली का भार अंग्रेजों पर था और कुल सम्पत्ति की रक्षा का भार पापिष्ट, नराधम, विश्वासघातक, मनुष्य-कुलकलंक मीर जाफ़र पर था। (पृ0 741)
हर देश का राजा अपनी प्रजा की दशा का, भरण-पोषण का ख़याल रखता है। हमारे देश का मुसलमान राजा क्या हमारी रक्षा कर रहा है?
धर्म गया, जाति गई, मान गया-अब तो प्राणों पर बाज़ी आ गई है। इन नशेबाज़ दाढ़ीवालों को बिना भगाए क्या हिन्दू-हिन्दू रह जाएंगें?
महेन्द्र-कैसे भगाओगे?
भवानन्द-मारकर! (पृ॰ 746)
भवानन्द मुसलमानों को कायर और अंग्रेजों को बहादुर बताते हुए कहता है-
“एक अंग्रेज़ प्राण जाने पर भी भागता नहीं, लेकिन एक मुसलमान पसीना होते ही भागता है, शरबत की खोज करता है। इससे मान लो, अंग्रेज जो करना चाहते हैं करके छोड़ते हैं, उनमें लगन होती है मुसलमान आरामतलब होते हैं, रूपए के लिए प्राण देते हैं- उस पर तनख्वाह भी तो नहीं पाते। सबसे अंतिम बात यह है कि अंग्रेज़ साहसी होते हैं। एक गोला एक ही जगह जाकर गिरेगा, दस जगह नहीं। अतः एक गोले को देखकर दस आदमियों के भागने की क्या ज़रूरत हैं? एक गोले के छूटते ही मुसलमान फ़ौज की फौ़ज भागती है। लेकिन सैकड़ों गोले देखकर भी एक अंग्रेज़ तो नहीं भागता (पृ0 747) भवानन्द ने गाना शुरू किया-
वन्दे मातरम्! सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां मातरम् ।
महेन्द्र गाना सुनकर कुछ आश्चर्य में आए। वे कुछ समझ न सके-
सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलां, शस्यश्यामलाम् माता कौन है?
उन्होंने पूछा यह माता कौन है?
कोई उत्तर न देकर भवानन्द गाते रहे- वन्दे मातरम् !
महेन्द्र ने देखा, दस्यु गाते-गाते रोने लगा। महेन्द्र बोला- यह तो देश है, यह तो माँ नहीं है। भवानन्द ने कहा- हम लोग किसी दूसरी माँ को नहीं मानते। (पृ0 744-45)
महेन्द्र को लेकर ब्रह्मचारी स्वामी सत्यानन्द देवालय के अन्दर घुसे। वहां महेन्द्र ने देखा कि एक विराट चतुर्भुज मूर्ति है, शंख-चक्र गदा- पद्मधारी, कौस्तुभमणि हृदय पर धारण किये सामने घूमते सुदर्शनचक्र लिए स्थापित है।मधुकैटभ जैसी दो विशाल छिन्नमस्तक मूर्तियां खून से लथपथ-सी चित्रित सामने पड़ी हैं। बाएं लक्ष्मी आलुलायित-कुंतला शतदल-मालामंडिता,भयग्रस्त की तरह खड़ी है। दाहिने सरस्वती पुस्तक-वीणा और मूर्तिमयी राग-रागिनी आदि से घिरी हुई स्तवन कर रही है। विष्णु की गोद में एक मोहिनी मूर्ति-लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक सुन्दरी, उनसे भी अधिक ऐश्वर्यमयी अंकित है। गंदर्भ,किन्नर, यक्ष राक्षसगण उनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारी ने अतीव गंभीर, अतीव मधुर स्वर में महेन्द्र से पूछा-
सब कुछ देख रहे हो?
महेन्द्र ने उत्तर दिया- देख रहा हूँ।
ब्रह्मचारी-विष्णु की गोद में कौन है, देखते हो ?
महेन्द्र - यह माँ कौन है?
ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया- जिसकी हम संतान हैं।
महेन्द्र - कौन है वह?
ब्रह्मचारी- समय पर पहचान जाओगे। बोलो , वन्देमातरम्! अब चलो, आगे चलो। इसके बाद महेन्द्र ने दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेशादि की मूर्तियों को प्रणाम किया और वन्देमातरम् कहा (पृ0 748-49)
उपन्यासकार अंग्रज़ों के शासनकाल को क़ानून का युग मानते हैं और मुस्लिम शासनकाल को न्यायहीनता का युग। “ आज का़नूनों का युग है- उस समय अनियम के दिन थे।” (पृ0 756)
महेन्द्र के साथ सत्यानन्द स्वामी गिरफ़्तार होकर नगर के जेल में बन्द थे उन्हें छुड़ाने के लिए हज़ारों हज़ार संतानों को संबोधित करते हुए स्वामी ज्ञानान्द कहते हैं- “ अनेक दिनों से हम विचार करते आते हैं कि इस नवाब का महल तोड़कर यवनपुरी का नाश कर नदी के जल में डुबा देंगे- इन सुअरों के दाँत तोड़कर, इन्हें आग में जलाकर माता वसुमती का उद्धार करेंगे। जिन्‍हें हम विष्णु का अवतार मानते हैं, वही आज मलेच्छ मुसलमानों के कारागार में बंदी हैं। चलो हम लोग उस यवनपुरी का निर्दलन कर उसे धूरिण में मिला दें। उस शूकर- निवास को अग्नि से शुद्ध कर नदी-जल में धो दें, उसका ज़र्रा-ज़र्रा उड़ा दें। (पृ0 764)
महेन्द्र और सत्यानन्द को मुक्त कर सन्तानों ने जहां-जहां मुसलमानों का घर पाया आग लगा दी।(पृ0 764)
जीवानन्द ने सत्यानन्द से पूछा- महाराज!
ईश्वर हम लोगों पर इतने अप्रसन्न क्‍यों हैं? किस दोष से हम लोग मुसलमानों से पराभूत हुए?
सत्यानन्द ने कहा- हम लोग जो पराजित हुए, उसका कारण था कि हम निःशस्त्र थे- गोली-बन्दूक के आगे लाठी तलवार भला क्या कर सकता है। अतः हम लोग अपने पुरूषार्थ के न होने से हारे हैं। अब हमारा यही कर्तव्य है कि हमें भी अस्त्रों की कमी न हो। (पृ0 769)
शस्त्रास्त्रों का संग्रह करने के लिए स्वामी सत्यानन्द तीर्थ यात्रा पर निकलने लगे तो भवानन्द ने पूछा- तीर्थयात्रा पर इन चीज़ों का संग्रह आप कैसे करेंगे? सत्यानन्द- यह सब चीज़ें ख़रीदकर लाई नहीं जा सकती हैं। मैं कारीगर भेजूंगा, यहीं तैयारी करनी होंगी। (पृ0 769)
महेन्द्र ने सत्यानन्द से पूछा कि ‘संतानगण ने कहा कि ‘ हम लोग राज्य नहीं चाहते-केवल मुसलमान , भगवान के विद्वेषी हैं- इसलिए उनका समूल विनाश करना चाहते हैं। (पृ0 772)
इसके बाद ये लोग गांव-गांव में अपने गुप्तचर भेजने लगे। पर लोग जहां हिन्दु होते थे, कहते थे,
भाई! विष्णु-पूजा करोगे?’ इसी तरह बीस-पच्चीस सन्तान किसी मुसलमान बस्ती में पहुंच जाते और उनके घर आग लगा देते थे। उनका सर्वस्व लूटकर हिन्दू विष्णु-पूजकों में उसे वितरित कर देते थे। मुसलमानों के गांव भस्म कर राख बनाए जाते। स्थानीय मुसलमान यह सुनकर दल के दल सैनिकों को इनके दमन के लिए भेजते थे। लेकिन उस समय तक संतानगण दलबद्ध, शस्त्रयुक्त और महादंभशाली हो गये थे। उनके तेज के आगे मुस्लिम फ़ौज अग्रसर हो न पाती थी। (पृ0 780)
संतानों के दल के दल उस रात यत्र-तत्र ‘वंदेमातरम्’ और ‘जय जगदीश हरे’ के गीत गाते हुए घूमते रहे। कोई शत्रु-सेना का शस्त्र, तो कोई वस्त्र लूटने लगा। कोई मृतदेह के मुँह पर पक्षघात करने लगा,तो कोई दूसरी तरह का उपद्रव करने लगा। कोई गांव की तरफ़ तो कोई नगर की तरफ़ पहुंचकर राहगीरों और गृहस्थों को पकड़कर कहने लगा-‘वन्देमातरम् ’कहो, नहीं तो मार डालूंगा। ’ कोई मैदा-चीनी की दुकान लूट रहा था, तो कोई ग्वालों के घर पहुंचकर हांडी भर दूध ही छीनकर पीता था। कोई कहता- हम लोग ब्रज के गोप आ पहुंचे, गोपियां कहां हैं? उस रात में गांव-गांव में , नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी चिल्ला रहे थे- मुसलमान हार गए, देश हम लोगों का हो गया। भाइयों! हरि-हरि कहो! गांव में मुसलमान दिखायी पड़ते ही लोग खदेड़कर मारते थे। बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुँचकर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे। अनेक मुसलमान दाढ़ी मुंडवाकर देह में भस्मी रमाकर राम-राम जपने लगे। पूछने पर कहते -हम हिन्दू हैंं(पृ0 800-801)
शरीफ़ मुसलमान कहने लगे- इतने रोज़ बाद क्या सचमुच कुरआन शरीफ़ झूठा (नौज़बिल्लाह) हो गया? हम लोगों ने पांचों वक्त नमाज़ पढ़कर क्या किया, जब हिन्दूओं की फ़तह हुई । सब झूठ है। (पृ0 801)
युद्ध के दौरान अंग्रेज़ कप्तान टॉमस से एक संन्यासिनी कहती है- मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूँ कि जब हिन्दू-मुसलमानों में लड़ाई हो रही है, तो इस बीच में तुम लोग क्यों बोलते हो?(पृ0 782) भवानन्द ने युद्ध के दौरान कप्तान टॉमस को पकड़ लिया। भवानन्द ने कहा- कप्तान साहब! मैं तुम्हें मारूंगा नहीं, अंग्रेज़ हमारे शत्रु नहीं हैं। क्यों तुम मुसलमानों की सहायता करने आए? तुम्हें प्राणदान देता हूं, लेकिन अभी तुम बन्दी अवश्य रहोगे। अंग्रज़ों की जय हो, तुम हमारे मित्र हो।(पृ0 796)
स्पष्ट है इस उपन्यास ने हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को समाप्त करने में योगदान किया और देश विभाजन का एक प्रमुख कारण बना।
-इलियास ‘कुतुबपुरी’
=========================================
नफ़रत की आग बुझाइएः -डॉ0 अनवर जमाल
वन्दे मातरम् एक ऐसा इश्यू है जो सोचे समझे तरीके़ से रह रह कर उठाया जाता है। कान्ति मासिक जुलाई 1999 में प्रकाशित यह लेख आज भी प्रासंगिक है।
अली मियां द्वारा‘ वन्देमातरम्’ के विरोध के कारण भारतीय मुसलमानों को देशद्रोही के रूप में चित्रित किया जा रहा था। जबकि देशद्रोही तो ‘आनन्द मठ’ के लेखक को कहा जाना चाहिए जिसमें अंगे्रज़ों के आगमन पर हर्षित होकर कहा गया कि ‘ अब अंग्रेज़ आ गये हैं, हमारी जान व माल की सुरक्षा होगी।’
जिसके कारण डा0 लोहिया ने कहा था कि ‘आनन्द मठ’ उपन्यास हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन पर एक कलंक है।
यह कलंक उस बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा लगाया गया जिसने ‘हाजी मोहसिन फण्ड’ से आर्थिक सहायता पाकर बी. ए. की डिग्री प्राप्त की और वाकार्थ में निपुणता पाते ही मुस्लिम दुश्मनी के प्लॉट पर एक उपन्यास लिख डाला जिसमें नायक भवानन्द महेन्द्र को समझाते हुए कहता है कि जब तक मुसलमानों को निकाल न दिया जाए तब तक तेरा धर्म सुरक्षित नहीं।
ऐसी प्रेरणा पाकर सैकड़ों नवयुवक सन्यासी बन जाते हैं। जो मुसलमानों को मारते काटते हैं उनके घरों में आग लगाते हैं और उनका माल हिन्दुओं में बांट देते हैं। राष्ट्रीय एकता पर कुठाराघात करने वाले इसी उपन्यास का एक अंश है ‘वन्देमातरम्’। मुसलमानों द्वारा इस गीत के विरोध का एक कारण तो यही है और दूसरा यह है कि गीत के पहले और दूसरे पद्य में भारत भूमि के सुन्दर फूलों, मीठे फलों और हरे-भरे खेतों का मनोहर वर्णन करते-करते उसे पांचवे पद में दुर्गा और कमला बना दिया जाता है। जो स्पष्टतः एकेश्रवाद के विरूद्ध है।
जो लोग ‘वन्देमातरम्’ को जायज़ कह रहे हैं वे केवल गीत के शब्दों को संदर्भ प्रसंग से काटकर देख रहे हैं। वन्देमातरम्’ अर्थात् हे मां! मैं तेरी वन्दना (तारीफ़) करता हूं। काव्य में अलंकारिक रूप से भूमि को माता कहने की गुन्‍जाइश है और उसकी प्रशंसा और गुणगान करने की भी। परन्तु यही कर्म तब वर्जित हो जाता है। जब देश को देव का अर्थात् उपास्य का दर्जा दे दिया जाए। देशप्रेम आवश्यक है मगर अति हर चीज़ की बुरी है।
सृष्टि को सृष्टा के समान उपास्य मान लेना कोई नई बात नहीं। संसार में हर जगह और हर ज़माने में यह हुआ है। यह वह रोग है कि जिस क़ौम को लग जाए उसे वर्गों में बांटकर अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़ देता है। सृष्टा को छोड़कर सृष्टि पूजा में लगे अरबवासियों को इस पतन से निकालने के लिए जब पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल0) ने एकेश्वरवाद का उपदेश दिया तो उन पर विष्ठा फेंकी गयी, रास्ते में कांटे बिछाये गये और उन पर इतने पत्थर बरसाये गये कि जूते रक्त से भरकर उनके पैरों से चिपक गये और एक मौक़े पर उनके दो दांत खंडित हो गये। 23 वर्षो के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप अरबों ने एकेश्वरवाद को हृदयंगम कर लिया। तब से इस्लाम के जानकार इस्लाम की इस मूल चेतना को बचाये हुए हैं। आज भी मुसलमान जब पैग़म्बर साहब (सल्ल0) की क़ब्र पर जाते हैं तो अल्लाह से उनके लिए शांति व बरकत की दुआ करते हैं न उन्हें सजदा करते हैं और न उनसे मन्नत- मुराद मांगते हैं।
यदि कोई प्रेम में अति करने की कोशिश करता भी है तो वहां नियुक्त सिपाही उसे बलपूर्वक रोकते हैं। मुसलमान ईश्वरीय ज्ञान कुरआन का बेइन्तिहा आदर-सम्मान करते हैं, मगर सजदा उसके सामने भी नहीं करते। भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दुओं की देखादेखी मन्दिरों की भांति क़ब्रों को पक्का करके उन पर फूल-चादरें चढ़ाई जाने लगीं, और उनके सामने सजदे होने लगे, उनसे मन्नत-मुरादें मांगी जाने लगीं तो उनके विरूद्ध भी अनेक फ़तवे दिये गये। ‘बादशाहों को सर झुकाना हराम है’ यह फ़तवा देने पर और स्वयं न झुकाने पर शेख़ अहमद सरहिन्दी रह0 को जहांगीर ने क़ैद कर दिया था। बाद में इस प्रथा को औरंगज़ेब रह0 ने समाप्त किया। इसी इस्लामी चेतना के कारण ‘जय हिन्द’ कहने और ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ मानने वाले मुसलमान किसी कवि के अतिश्योक्तिपूर्ण दर्शन के कारण अपने पालनहार के प्रति कृतघ्न नहीं हो सकते।
होना तो हिन्दुओं को भी नहीं चाहिए क्योंकि धर्म का मूल वेद है और वेद ऐसे कर्मों में रत व्यक्तियों और राष्ट्रों के पतन की खुली घोषणा करते हैं- ‘जो असम्भूति अर्थात् प्रकृति रूप जड़ पदार्थ (अग्नि, मिट्टी, वायु आदि) की उपासना करते हैं और जो सम्भूति अर्थात् इन प्रकृति पदार्थो के परिणामस्वरूप सृष्टि (पेड़, पौधे, मूर्ति आदि) में रमण करते हैं। वे उससे भी अधिक अंधकार में पड़ते हैं। (यजुर्वेद 40ः9, अनुवाद पं0 श्री राम शर्मा आचार्य)
आज पतन के कारण को देशप्रेम का पैमाना मुक़र्रर किया जा रहा है। टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो गये और रंगून में दयनीय अवस्था में प्राण त्यागने वाले 1857 की क्रान्ति के नायक बहादुर शाह ज़फर को अपनी आँखों से तीन पुत्रों की कटी गरदनें देखनी पड़ीं।
इतना बडा बलिदान देने वाले ‘वन्देमातरम्’ नाम की चीज़ से वाकिफ़ तक न थे। जबिक आज ‘वन्देमातरम्’ के गायन पर ज़ोर देने वाले ब्रिटिश काल में रोज़ शाखा लगाते रहे, मार्शल आट्र्स की प्रैक्टिस करते रहे, लेकिन आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया बल्कि स्वाधीनता आन्दोलन के कृशकाय नायक के प्राणान्त का कारण बने। आज उलेमा के सम्मिलित विरोध के कारण श्री आडवाणी को कहना पड़ा कि ‘वन्देमातरम्’ मुसलमानों पर जबरन नहीं थोपा जायेगा।’ मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह ने भी कहा,’ वन्देमातरम्’ के गायन को अनिवार्य बनाने का कोई इरादा सरकार का नहीं है। परन्तु इतना कह देने मात्र से मुसलमानों की समस्या सुलझ नहीं जाती, क्योंकि वह मानसिकता अब किसी न किसी दूसरे रूप में प्रकट होगी। इसका एकमात्र समाधान यही है कि भारत में आये पैग़म्बरों की शिक्षा को भुला बैठी जनता को आखि़री पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के माध्यम से मिले कुरआन की शिक्षाओं से परिचित कराया जाए जो कि सभी पैग़म्बरों की मूल शिक्षा है। बाईबिल के अलावा स्वयं वेदों में कुरआनी मान्यताओं और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल0) की पुष्टि में अनेकों जगह वर्णन है। अरब में पृथ्वी का केन्द्र ‘मक्का’ में आये हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) पर लगभग एक लाख चैबीस हज़ार पैग़म्बरों की श्रृंखला के समापन के साथ धर्म को पूर्णता प्राप्त हुई। विभिन्न जातियों ,भाषाओं और देशकाल में आये सभी पैग़म्बरों की मूल शिक्षा और धर्म का सार यह था कि ऐ लोगो! तुम्हारा खु़दा एक है तुम उसी की बन्दगी करो और तुम्हारा ख़ून एक है। तुम सब एक परिवार हो।
आग और ख़ून का जो तूफ़ान आज खड़ा किया जा रहा है नफ़रत के जिन विचारों से आज समाज को हिप्नॉटाइज़ किया जा रहा है उसकी निन्दा करना वेदज्ञों पर भी वाजिब है वर्ना हमारा यह प्यारा भारत देश कभी पतन के गर्त से उबर न सकेगा।
-डॉ0 अनवर जमाल


Left: Ayaz khan, Dr. Anwar Jamal with Vande ishwaram team

Tuesday, August 18, 2009

वन्दे ईश्वरम मासिक पत्रिका vande-ishwaram jul-aug 2009

देवबंद से प्रकाशित मासिक पत्रिका
भारत को विश्‍व गुरू बनाने के लिये सहयोग दें,
पत्रिका ONLINE Read

पत्रिका FILE save:
vande-ishwaram jul-aug 2009 P.D.F Book
File Size : 343 KB only